हिंदी फिल्मों में गीतकार पुराने दिग्गजों की कालजयी कृतियों से प्रेरणा लेते रहे हैं और जब-जब ऐसा हुआ है परिणाम ज्यादातर बेहतरीन ही रहे हैं। पिछले एक दशक के हिंदी फिल्म संगीत में ऐसे प्रयोगों से जुड़े दो बेमिसाल नग्मे तो तुरंत ही याद आ रहे हैं। 2007 में एक फिल्म आई थी खोया खोया चांद और उस फिल्म में गीतकार स्वानंद ने मजाज लखनवी की बहुचर्चित नज्म आवारा से जी में आता है, मुर्दा सितारे नोच लूं…, का बड़ा प्यारा इस्तेमाल किया था। फिर वर्ष 2009 में प्रदर्शित फिल्म गुलाल में पीयूष मिश्रा ने फिल्म प्यासा में साहिर के लिखे गीत ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है…, को अपने लिखे गीत ओ री दुनिया…, में उतना ही सटीक प्रयोग किया था। ।
बनारस की गलियों में दो भोले भाले दिलों के बीच पनपते इस फेसबुकिये प्रेम को जब वरुण अपने शब्दों के तेल से छौंकते हैं तो उसकी झांस से सच ये दिल रूपी पुल थरथरा उठता है। गीत के बोलों में छिपी शरारत खूबसूरत रूपकों के जरिए उड़ा ले जाती है। प्रेम के इस बुलबुले को उसकी स्वाभाविक नियति के लिए…।
तू किसी रेल सी गुजरती है, मैं किसी पुल सा थरथराता हूं
तू भले रत्ती भर ना सुनती है… मैं तेरा नाम बुदबुदाता हूं…
किसी लंबे सफर की रातों में तुझे अलाव सा जलाता हूं
काठ के ताले हैं, आंख पे डाले हैं उनमें इशारों की चाभियां लगा
रात जो बाकी है, शाम से ताकी है नीयत में थोड़ी खराबियां लगा… खराबियां लगा…
मैं हूं पानी के बुलबुले जैसा तुझे सोचूं तो फूट जाता हूं
तू किसी रेल सी गुजरती है…थरथराता हूं
original poem
मैं जिसे ओढ़ता -बिछाता हूँ
वो गज़ल आपको सुनाता हूँ।
वो गज़ल आपको सुनाता हूँ।
एक जंगल है तेरी आँखों में
मैं जहाँ राह भूल जाता हूँ
मैं जहाँ राह भूल जाता हूँ
तू किसी रेल सी गुजरती है
मैं किसी पुल -सा थरथराता हूँ
मैं किसी पुल -सा थरथराता हूँ
हर तरफ़ एतराज़ होता है
मैं अगर रोशनी में आता हूँ
मैं अगर रोशनी में आता हूँ
एक बाजू उखड़ गया जब से
और ज़्यादा वज़न उठाता हूँ
और ज़्यादा वज़न उठाता हूँ
मैं तुझे भूलने की कोशिश में
आज कितने करीब पाता हूँ
कौन ये फासला निभाएगा,
मैं फ़रिश्ता हूँ सच बताता हूँ
आज कितने करीब पाता हूँ
कौन ये फासला निभाएगा,
मैं फ़रिश्ता हूँ सच बताता हूँ
- दुष्यंत कुमार