सोमवार, मई 28, 2012
गंगा की धार
विस्तार है अपार,
प्रजा दोनो पार, करे हाहाकार,
निशब्द सदा, ओ गंगा तुम, बहती हो क्यूँ ?
नैतिकता नष्ट हुई, मानवता भ्रष्ट हुई,
निर्लज्ज भाव से, बहती हो क्यूँ ?
इतिहास की पुकार,
करे हुंकार, ओ गंगा की धार,
निर्बल जन को, सबल संग्रामी,
समग्रगामी, बनाती नहीं हो क्यूँ ?
अनपढ जन, अक्षरहीन, अनगिन जन,
भाग्य विहीन नेत्र विहिन देख मौन मौन हो क्यूँ ?
व्यक्ति रहे, व्यक्ति केन्द्रित, सकल समाज,
व्यक्तित्व रहित, निष्प्राण समाज
को तोड़ती न क्यूँ ?
तेजस्विनी, क्यों न रही तुम निश्चय
इतना नहीं प्राणों में प्रेरणा देतीं न क्यूँ
उन्मद अवनी, कुरुक्षेत्र बनी, गंगे जननी
नवभारत में भीष्म रूपी सुत समरजयी जनती
नहीं हो क्यूँ ?
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1 टिप्पणी:
अद्भुत.....जज़बात पैदा करने वाली कविता है।
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