रविवार, सितंबर 26, 2010

उड़ान

छोटी छोटी छितराई यादें
बिछी हुईं हैं लम्हों की लौं में
नंगे पैर उनपर चलते चलते
इतने दूर आ गए है हम की अब
भूल गए हैं जूतें कहाँ उतारें थे
एड़ी कोमल थी जब आये थे
थोड़ी सी नाजुक है अभी भी और
नाजुक ही रहेगी
इन खट्टी मीठी यादों की शरारत
जब तक इन्हें गुदगुदाती रहे
सच
भूल गए हैं जूतें कहाँ उतारें थे
पर लगता है अब उनकी जरूरत नहीं

1 टिप्पणी:

निर्मला कपिला ने कहा…

भूल गए हैं जूतें कहाँ उतारें थे
पर लगता है अब उनकी जरूरत नहीं
यादों मे आदमी खुद को भी भूल जाता है बहुत अच्छी लगी कविता। शुभकामनायें।